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ओ षु घृ॑ष्विराधसो या॒तनान्धां॑सि पी॒तये॑। इ॒मा वो॑ ह॒व्या म॑रुतो र॒रे हि कं॒ मो ष्व१॒॑न्यत्र॑ गन्तन ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

o ṣu ghṛṣvirādhaso yātanāndhāṁsi pītaye | imā vo havyā maruto rare hi kam mo ṣv anyatra gantana ||

पद पाठ

ओ इति॑। सु। घृ॒ष्वि॒ऽरा॒ध॒सः॒। या॒तन॑। अन्धां॑सि। पी॒तये॑। इ॒मा। वः॒। ह॒व्या। म॒रु॒तः॒। र॒रे। हि। क॒म्। मो इति॑। सु। अ॒न्यत्र॑। ग॒न्त॒न॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:59» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्वामी जन नौकरों के प्रति कैसा आचरण करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) हे (घृष्विराधसः) इकट्ठे लिये हुए धनोंवाले (मरुतः) मनुष्यो ! जिन (इमा) इन (हव्या) देने और ग्रहण करने योग्य (अन्धांसि) अन्नपान आदिकों को (वः) आप लोगों के अर्थ (पीतये) पान करने के लिये मैं (ररे) देता हूँ उनसे (हि) ही आप लोग (कम्) सुख को (सु, यातन) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये (अन्यत्र) अन्य स्थान में (मो) नहीं (सु) अच्छे प्रकार (गन्तन) जाइये ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे धार्मिक विद्वानो ! मैं आप लोगों का पूर्ण सत्कार करता हूँ, आप लोग अन्यत्र की इच्छा को न करिये, यहाँ ही करने योग्य कर्मों को यथावत् करके पूर्ण अभीष्ट सुख को यहाँ ही प्राप्त हूजिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्वामिनो भृत्यान् प्रति कथमाचरेयुरित्याह ॥

अन्वय:

ओ घृष्विराधसो मरुतो ! यानीमा हव्यान्धांसि वः पीतयेऽहं ररे तैर्हि यूयं कं सुयातनान्यत्र मो सु गन्तन ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) सम्बोधने (सु) (घृष्विराधसः) घृष्वीनि सम्बद्धानि राधांसि येषां ते (यातन) प्राप्नुत (अन्धांसि) अन्नपानादीनि (पीतये) पानाय (इमा) इमानि (वः) युष्मभ्यम् (हव्या) दातुमादातुमर्हाणि (मरुतः) मनुष्याः (ररे) ददामि (हि) (कम्) सुखम् (मो) निषेधे (सु) (अन्यत्र) (गन्तन) गच्छत ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे धार्मिका विद्वांसोऽहं युष्माकं पूर्णं सत्कारं करोमि यूयमन्यत्रेच्छां मा कुरुतात्रैव कर्तव्यानि कर्माणि यथावत् कृत्वा पूर्णमभीष्टं सुखमत्रैव प्राप्नुत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे धार्मिक विद्वानांनो ! मी तुमचा पूर्ण सत्कार करतो. तुम्ही इतर कोणतीही इच्छा धरू नका. कर्तव्य कर्म यथायोग्य करून पूर्ण अभीष्ट सुख प्राप्त करा. ॥ ५ ॥